मुक्ति - तत्त्वम्
॥ श्रीदेव्युवाच ॥
मुक्ति - तत्त्वं महादेव, वद में करुणानिधे ! ।
यस्मिन् षड् - दर्शनानीह, चोपहास्य - गतानि च ॥१॥
॥ श्रीशिव उवाच ॥
श्रृणु देवि ! शुभे विज्ञे, यत्पृष्टं तत्त्वमुत्तमं ।
एतन्मर्म च त्वं वेत्ति ! अहं वेद्मि तथा हरिः ॥२॥
मोदकेन यथा लोकः, प्रतारयति बालकान् ।
लगुड़ेन यथा देवी ! बध्नाति दुर्जनं हि च ॥३॥
तथानङ्गकृतो लोके, दर्शनैर्बर्बरो मया ।
दुर्जने यदि मुक्तिः स्याच्छङ्कयेति शुभानने ! ॥४॥
षडदर्शन - महाकूपे, पतिताः पशवः प्रिये ! ।
परमार्थं न जानन्ति, दर्वी ! पाक - रसं यथा ॥५॥
न सारः कदली - वृक्षे, नैरण्डे तु शुभानने ! ।
दर्शनेषु तथा मुक्तिर्नास्ति देवि ! मयोदितम् ॥६॥
यथा मरीचिकायास्तु, निवर्तनते पुनर्मृगाः ।
दर्शनेभ्यो निवर्तन्ते, तथा मुमुक्षवः पुनः ॥७॥
श्रीगुरोश्च प्रसादेन, मुक्तिमादौ सदा लभेत् ।
विचरेत् सर्व - शास्त्रेषु, कौतुकाय ततः सुधीः ॥८॥
मुक्तितत्त्व प्रवक्ष्यामि, सादरं श्रृणु पार्वति ! ।
शरीर - धारणं यस्य, कुर्वन्तीह पुनः पुनः ॥९॥
आदावनुग्रहो देव्याः, श्रीगुरोस्तदनन्तरं ।
तदाननात्ततो दीक्षा, भक्तिस्तस्याः प्रजायते ॥१०॥
ततो हि साधनं शुद्धं, तस्माज् ज्ञानं सुनिर्मलं ।
ज्ञानान्मोक्षो भवेत् सत्यं, इति शास्त्रस्य निर्णयः ॥११॥
मुक्तिश्चतुर्विधा प्रोक्ता, सालोक्यं तु शुभानने ! ।
सारोप्यं सह - योज्यं च, निर्वाणं हि परात्परम् ॥१२॥
सालोक्यं वसतिर्लोके, सारोप्यं तु स्वरुपतः ।
सायोज्यं कलया युक्तं, निर्वाणं तु मनोलयम् ॥१३॥
॥ श्रीदेव्युवाच ॥
सम्यक् लयो जनस्यैव, निर्वाणं यत्तु कथ्यते ।
तत् किं वद महादेव, संशयं लयसात् कुरु ॥१४॥
॥ श्रीशिव उवाच ॥
व्यक्तिर्लयात्मिका मुक्तिरसुराणां दयानिधे ! ।
दुर्जुनत्वाल्लोपयित्वा, क्रीडयामि सुरानहम् ॥१५॥
मनोलयात्मिका मुक्तिरिति जानीहि शंकरि ! ।
प्राप्तं मया विष्णुना च ब्रह्मणा नारदादिभिः ॥१६॥
सालोक्यं केवलं यत्तु, याति सारोप्य - युक् द्वयं ।
त्रिधा सायोज्यवानेति, निर्वाणी सर्वमेव हि ॥१७॥
नीलोत्पल - दल - श्यामा, मुक्तिर्द्विदल - वर्तिनी ।
मुक्तस्यैव सदा स्फीता, स्फुरत्यविरतं प्रिये ! ॥१८॥
सनातनी जगद् - वन्द्या, सच्चिदानन्द - रुपिणी ।
परा च जननी, चैव, सर्वाभीष्ट - प्रदायिनी ॥१९॥
इष्टे निश्चल - सम्बन्धं, निर्वाण - मुक्तिरीदृशी ।
साधूनां देव - देवेशि ! सर्वेषां विद्धि निश्चितम् ॥२०॥
मुक्तिज्ञानं कुलज्ञनां, नान्य - ज्ञानं कुलेश्वरि !
तथा च साधनं ज्ञेयं, पञ्चतत्त्वैश्च मुक्तिदम् ॥२१॥
अनुग्रहं तु देव्याश्च, कुल - मार्ग - प्रदर्शकः ।
दीक्षा कुलात्मिका देवी ! श्रीगुरोर्मुख - पंकजात् ॥२२॥
कुल - द्रव्येषु या भक्तिः, सा मोक्ष - दायिनी मता ।
ज्ञात्वा चैवं प्रयत्नेन, कुल - ज्ञानं भजेद् बुधः ॥२३॥
यदि भाग्य - वशद् देवी ! मन्त्रमेतत्तु लभ्यते ।
मुक्तेश्च कारणं तस्याः, स्वयं जातं न चान्यथा ॥२४॥
अश्रुतं मुक्ति - तत्त्वं हि, कथितं ते महेश्वरी ! ।
आत्म - योनिर्यथा देवि ! तथा गोप्यं ममाज्ञया ॥२५॥
॥ श्रीकामाख्या - तन्त्रे पार्वतीश्वर - संवादे नवमः पटलः ॥
श्री देवी ने कहा - हे दयासागर महादेव ! मुझे मुक्तितत्त्व बताइए, जिसके समक्ष छः दर्शनों का ज्ञान भी इस संसार में हँसी की बात बन जाता हैं ।
श्री शिव ने कहा - हे कल्याणि, विशेष जाननेवाली देवी ! श्रेष्ठतत्त्व को सुनो । इस रहस्य को तुम जानती हो या मैं और विष्णु ही जानते हैं । जिस प्रकार लोग लङ्डू देकर बच्चों को बहलाते हैं या जैसे हे देवी ! दुष्ट को रस्सी से बाँधते हैं, उसी प्रकार दुष्ट को ' मुक्ति ' में ही शंका होती है, अतः दर्शनशास्त्रों द्वारा मैं संसार में बर्बर ( अहंकारी ) को मोह में डाल देता हूँ ।
छः दर्शनरुपी भयंकर कुएँ में पशु - भावापन्न लोग गिर जाते हैं और वे परमार्थ को नहीं समझ पाते, जैसे चमचा रसीले पदार्थ को परोसता है, किन्तु वह उसके स्वाद को जड़ होने के कारण नहीं जानता । हे कल्याणमुखि ! जैसे केले या रेड़ी के पेड़ में कोई तत्त्व नहीं होता, उसी प्रकार हे देवी ! ' दर्शन ' के ज्ञान से मुक्ति नहीं होती ।
जिस प्रकार मिर्च के पास जाकर पशु पुनः लौट जाते हैं, वैसे ही मोक्ष चाहनेवाले दर्शनशास्त्र का अध्ययन कर उससे विमुख हो जाते हैं । श्रीगुरुदेव की प्रसन्नता से ही सदैव मुक्ति मिलती है । अतः बुद्धिमान् को उनकी कृपा प्राप्त करने के बाद ही अपनी जिज्ञासा को शान्त करने के लिए सभी शास्त्रों का अध्ययन करना चाहिए ।
हे पार्वती ! मैं ' मुक्ति ' के तत्त्व को कहूँगा, आदरसहित सुनो । जो इस संसार में बारम्बार जन्म लेते हैं, उन्हें पहले देवी का, तब श्री गुरुदेव का अनुग्रह पाना चाहिए । तब उनके मुख से दीक्षा ग्रहण करें, जिससे भक्ति उत्पन्न होती है । तदनन्तर पवित्र साधनों से साधना करनी चाहिए । उससे निर्मल ज्ञान उत्पन्न होता है और उस ज्ञान से मोक्ष होता है, यह सत्य है - ऐसा शास्त्र का निर्णय है ।
हे कल्याणमुखी ! ' मुक्ति ' चार प्रकार की कही गई है - १. सालोक्य, २. सारोप्य, ३. सह - योज्य और ४. श्रेष्ठ निर्वाण । ' सालोक्य मुक्ति ' में इष्टदेवता के लोक में निवास करने का सौभाग्य मिलता है, ' सारुप्य ' में साधक इष्ट - देवता जैसा ही स्वरुपवान बन जाता है, ' सायुज्य ' में वह इष्टदेव की ' कला ' से युक्त हो जाता है और ' निर्वाण मुक्ति ' में मन का इष्ट में लय हो जाता है ।
श्री देवी ने कहा - हे महादेव ! जीव का लय समुचित रुप से जिस ' मुक्ति ' द्वारा होता है, जिसे ' निर्वाण ' तत्त्व कहते हैं, वह क्या है, उसे बताइए और सन्देह दूर कीजिए ।
श्री शिव ने कहा - हे दयानिधे ! आसुरी व्यक्तित्व का लोप होना ही ' मुक्ति ' है । दुर्जनता का नाश करके मैं देवताओं को प्रसन्न करता हूँ । हे शंकरी ! मनोलयात्मिका ' मुक्ति ' को मैंने, विष्णु ने, ब्रह्मा ने और नारद आदि मुनियों ने प्राप्त किया है ।
' सालोक्य ' भी मुक्ति है, ' सालोक्य ' और ' सारुप्य ' दोनों मुक्ति है और ' सालोक्य ', ' सारुप्य ' और ' सायुज्य ' - ये तीनों ही ' निर्वाण ' हैं । दो दलवाले कमल के मध्य में निवास करनेवाली, नीलकमल की पंखुड़ियों के समान श्याम वर्णवाली मुक्ति देवी मुक्त जीव के समक्ष प्रकट होकर उसे निरन्तर आनन्दित करती रहती है ।
वह ' मुक्ति देवी ' सनातनी है, विश्ववन्द्या है, सच्चिदानन्द - रुपिणी परोऽम्बा है और सभी अभीष्ट कामनाओं की पूर्ति करती है । इष्टदेव के साथ स्थिर सम्बन्ध होना ' निर्वाण - मुक्ति ' है । हे देवेश्वरी ! सभी साधुजनों को यही मुक्ति निश्चित रुप से मिलती है ।
हे कुलेश्वरी ! कुल - धर्म के ज्ञाता साधक ' मुक्ति ' का यह ज्ञान अवश्य रखते हैं, अन्य ज्ञान को वे महत्त्व नहीं देते । साथ ही मुक्तिदायक पंचतत्त्वों द्वारा साधना को जानते हैं । देवी का अनुग्रह ही कुलमार्ग का प्रदर्शक है । हे देवी ! कुलान्तिका दीक्षा श्री गुरुदेव के मुख - कमल से मिलती है ।
कुलद्रव्यों में जो भक्ति होती है, वही मोक्षदायिनी मानी गई है । प्रयत्नपूर्वक ऐसा जानकर बुद्धिमान् को कुल, धर्म का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए । भाग्यवश यदि इस प्रकार की मन्त्रदीक्षा किसी को मिलती है, तो उसकी मुक्ति का मार्ग स्वयं खुल जाता है, इसमें सन्देह नहीं ।
हे महेश्वरी ! अब तक न सुने गए मुक्तितत्त्व को मैंने तुमसे कहा । हे देवी ! इसे मेरी आज्ञा से अपनी योनि के समान गुप्त रखना चाहिए ।
मुक्ति - तत्त्वं महादेव, वद में करुणानिधे ! ।
यस्मिन् षड् - दर्शनानीह, चोपहास्य - गतानि च ॥१॥
॥ श्रीशिव उवाच ॥
श्रृणु देवि ! शुभे विज्ञे, यत्पृष्टं तत्त्वमुत्तमं ।
एतन्मर्म च त्वं वेत्ति ! अहं वेद्मि तथा हरिः ॥२॥
मोदकेन यथा लोकः, प्रतारयति बालकान् ।
लगुड़ेन यथा देवी ! बध्नाति दुर्जनं हि च ॥३॥
तथानङ्गकृतो लोके, दर्शनैर्बर्बरो मया ।
दुर्जने यदि मुक्तिः स्याच्छङ्कयेति शुभानने ! ॥४॥
षडदर्शन - महाकूपे, पतिताः पशवः प्रिये ! ।
परमार्थं न जानन्ति, दर्वी ! पाक - रसं यथा ॥५॥
न सारः कदली - वृक्षे, नैरण्डे तु शुभानने ! ।
दर्शनेषु तथा मुक्तिर्नास्ति देवि ! मयोदितम् ॥६॥
यथा मरीचिकायास्तु, निवर्तनते पुनर्मृगाः ।
दर्शनेभ्यो निवर्तन्ते, तथा मुमुक्षवः पुनः ॥७॥
श्रीगुरोश्च प्रसादेन, मुक्तिमादौ सदा लभेत् ।
विचरेत् सर्व - शास्त्रेषु, कौतुकाय ततः सुधीः ॥८॥
मुक्तितत्त्व प्रवक्ष्यामि, सादरं श्रृणु पार्वति ! ।
शरीर - धारणं यस्य, कुर्वन्तीह पुनः पुनः ॥९॥
आदावनुग्रहो देव्याः, श्रीगुरोस्तदनन्तरं ।
तदाननात्ततो दीक्षा, भक्तिस्तस्याः प्रजायते ॥१०॥
ततो हि साधनं शुद्धं, तस्माज् ज्ञानं सुनिर्मलं ।
ज्ञानान्मोक्षो भवेत् सत्यं, इति शास्त्रस्य निर्णयः ॥११॥
मुक्तिश्चतुर्विधा प्रोक्ता, सालोक्यं तु शुभानने ! ।
सारोप्यं सह - योज्यं च, निर्वाणं हि परात्परम् ॥१२॥
सालोक्यं वसतिर्लोके, सारोप्यं तु स्वरुपतः ।
सायोज्यं कलया युक्तं, निर्वाणं तु मनोलयम् ॥१३॥
॥ श्रीदेव्युवाच ॥
सम्यक् लयो जनस्यैव, निर्वाणं यत्तु कथ्यते ।
तत् किं वद महादेव, संशयं लयसात् कुरु ॥१४॥
॥ श्रीशिव उवाच ॥
व्यक्तिर्लयात्मिका मुक्तिरसुराणां दयानिधे ! ।
दुर्जुनत्वाल्लोपयित्वा, क्रीडयामि सुरानहम् ॥१५॥
मनोलयात्मिका मुक्तिरिति जानीहि शंकरि ! ।
प्राप्तं मया विष्णुना च ब्रह्मणा नारदादिभिः ॥१६॥
सालोक्यं केवलं यत्तु, याति सारोप्य - युक् द्वयं ।
त्रिधा सायोज्यवानेति, निर्वाणी सर्वमेव हि ॥१७॥
नीलोत्पल - दल - श्यामा, मुक्तिर्द्विदल - वर्तिनी ।
मुक्तस्यैव सदा स्फीता, स्फुरत्यविरतं प्रिये ! ॥१८॥
सनातनी जगद् - वन्द्या, सच्चिदानन्द - रुपिणी ।
परा च जननी, चैव, सर्वाभीष्ट - प्रदायिनी ॥१९॥
इष्टे निश्चल - सम्बन्धं, निर्वाण - मुक्तिरीदृशी ।
साधूनां देव - देवेशि ! सर्वेषां विद्धि निश्चितम् ॥२०॥
मुक्तिज्ञानं कुलज्ञनां, नान्य - ज्ञानं कुलेश्वरि !
तथा च साधनं ज्ञेयं, पञ्चतत्त्वैश्च मुक्तिदम् ॥२१॥
अनुग्रहं तु देव्याश्च, कुल - मार्ग - प्रदर्शकः ।
दीक्षा कुलात्मिका देवी ! श्रीगुरोर्मुख - पंकजात् ॥२२॥
कुल - द्रव्येषु या भक्तिः, सा मोक्ष - दायिनी मता ।
ज्ञात्वा चैवं प्रयत्नेन, कुल - ज्ञानं भजेद् बुधः ॥२३॥
यदि भाग्य - वशद् देवी ! मन्त्रमेतत्तु लभ्यते ।
मुक्तेश्च कारणं तस्याः, स्वयं जातं न चान्यथा ॥२४॥
अश्रुतं मुक्ति - तत्त्वं हि, कथितं ते महेश्वरी ! ।
आत्म - योनिर्यथा देवि ! तथा गोप्यं ममाज्ञया ॥२५॥
॥ श्रीकामाख्या - तन्त्रे पार्वतीश्वर - संवादे नवमः पटलः ॥
Translation - भाषांतर
श्री देवी ने कहा - हे दयासागर महादेव ! मुझे मुक्तितत्त्व बताइए, जिसके समक्ष छः दर्शनों का ज्ञान भी इस संसार में हँसी की बात बन जाता हैं ।
श्री शिव ने कहा - हे कल्याणि, विशेष जाननेवाली देवी ! श्रेष्ठतत्त्व को सुनो । इस रहस्य को तुम जानती हो या मैं और विष्णु ही जानते हैं । जिस प्रकार लोग लङ्डू देकर बच्चों को बहलाते हैं या जैसे हे देवी ! दुष्ट को रस्सी से बाँधते हैं, उसी प्रकार दुष्ट को ' मुक्ति ' में ही शंका होती है, अतः दर्शनशास्त्रों द्वारा मैं संसार में बर्बर ( अहंकारी ) को मोह में डाल देता हूँ ।
छः दर्शनरुपी भयंकर कुएँ में पशु - भावापन्न लोग गिर जाते हैं और वे परमार्थ को नहीं समझ पाते, जैसे चमचा रसीले पदार्थ को परोसता है, किन्तु वह उसके स्वाद को जड़ होने के कारण नहीं जानता । हे कल्याणमुखि ! जैसे केले या रेड़ी के पेड़ में कोई तत्त्व नहीं होता, उसी प्रकार हे देवी ! ' दर्शन ' के ज्ञान से मुक्ति नहीं होती ।
जिस प्रकार मिर्च के पास जाकर पशु पुनः लौट जाते हैं, वैसे ही मोक्ष चाहनेवाले दर्शनशास्त्र का अध्ययन कर उससे विमुख हो जाते हैं । श्रीगुरुदेव की प्रसन्नता से ही सदैव मुक्ति मिलती है । अतः बुद्धिमान् को उनकी कृपा प्राप्त करने के बाद ही अपनी जिज्ञासा को शान्त करने के लिए सभी शास्त्रों का अध्ययन करना चाहिए ।
हे पार्वती ! मैं ' मुक्ति ' के तत्त्व को कहूँगा, आदरसहित सुनो । जो इस संसार में बारम्बार जन्म लेते हैं, उन्हें पहले देवी का, तब श्री गुरुदेव का अनुग्रह पाना चाहिए । तब उनके मुख से दीक्षा ग्रहण करें, जिससे भक्ति उत्पन्न होती है । तदनन्तर पवित्र साधनों से साधना करनी चाहिए । उससे निर्मल ज्ञान उत्पन्न होता है और उस ज्ञान से मोक्ष होता है, यह सत्य है - ऐसा शास्त्र का निर्णय है ।
हे कल्याणमुखी ! ' मुक्ति ' चार प्रकार की कही गई है - १. सालोक्य, २. सारोप्य, ३. सह - योज्य और ४. श्रेष्ठ निर्वाण । ' सालोक्य मुक्ति ' में इष्टदेवता के लोक में निवास करने का सौभाग्य मिलता है, ' सारुप्य ' में साधक इष्ट - देवता जैसा ही स्वरुपवान बन जाता है, ' सायुज्य ' में वह इष्टदेव की ' कला ' से युक्त हो जाता है और ' निर्वाण मुक्ति ' में मन का इष्ट में लय हो जाता है ।
श्री देवी ने कहा - हे महादेव ! जीव का लय समुचित रुप से जिस ' मुक्ति ' द्वारा होता है, जिसे ' निर्वाण ' तत्त्व कहते हैं, वह क्या है, उसे बताइए और सन्देह दूर कीजिए ।
श्री शिव ने कहा - हे दयानिधे ! आसुरी व्यक्तित्व का लोप होना ही ' मुक्ति ' है । दुर्जनता का नाश करके मैं देवताओं को प्रसन्न करता हूँ । हे शंकरी ! मनोलयात्मिका ' मुक्ति ' को मैंने, विष्णु ने, ब्रह्मा ने और नारद आदि मुनियों ने प्राप्त किया है ।
' सालोक्य ' भी मुक्ति है, ' सालोक्य ' और ' सारुप्य ' दोनों मुक्ति है और ' सालोक्य ', ' सारुप्य ' और ' सायुज्य ' - ये तीनों ही ' निर्वाण ' हैं । दो दलवाले कमल के मध्य में निवास करनेवाली, नीलकमल की पंखुड़ियों के समान श्याम वर्णवाली मुक्ति देवी मुक्त जीव के समक्ष प्रकट होकर उसे निरन्तर आनन्दित करती रहती है ।
वह ' मुक्ति देवी ' सनातनी है, विश्ववन्द्या है, सच्चिदानन्द - रुपिणी परोऽम्बा है और सभी अभीष्ट कामनाओं की पूर्ति करती है । इष्टदेव के साथ स्थिर सम्बन्ध होना ' निर्वाण - मुक्ति ' है । हे देवेश्वरी ! सभी साधुजनों को यही मुक्ति निश्चित रुप से मिलती है ।
हे कुलेश्वरी ! कुल - धर्म के ज्ञाता साधक ' मुक्ति ' का यह ज्ञान अवश्य रखते हैं, अन्य ज्ञान को वे महत्त्व नहीं देते । साथ ही मुक्तिदायक पंचतत्त्वों द्वारा साधना को जानते हैं । देवी का अनुग्रह ही कुलमार्ग का प्रदर्शक है । हे देवी ! कुलान्तिका दीक्षा श्री गुरुदेव के मुख - कमल से मिलती है ।
कुलद्रव्यों में जो भक्ति होती है, वही मोक्षदायिनी मानी गई है । प्रयत्नपूर्वक ऐसा जानकर बुद्धिमान् को कुल, धर्म का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए । भाग्यवश यदि इस प्रकार की मन्त्रदीक्षा किसी को मिलती है, तो उसकी मुक्ति का मार्ग स्वयं खुल जाता है, इसमें सन्देह नहीं ।
हे महेश्वरी ! अब तक न सुने गए मुक्तितत्त्व को मैंने तुमसे कहा । हे देवी ! इसे मेरी आज्ञा से अपनी योनि के समान गुप्त रखना चाहिए ।
Vijay Goel
Vedic Astrologer & Vastu Consultant
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