Friday, January 28, 2011

कामाख्या स्तुति देव्याः स्वरुपम् : Kamakhya Stuti : Part 12,

कामाख्या - देव्याः स्वरुपम्
॥ श्रीदेव्युवाच ॥
कामाख्या या महादेवी, कथिता सर्वरुपिणी ।
सा का वद जगन्नाथ ! कपटं मा कुरु प्रभो ! ॥१॥
कुर्यास्तु कपटं नाथ ! यदि में शपथस्त्वयि ।
रतौ का कामिनी योनि, सम्यक् न दर्शयेत् पतिम् ॥२॥
श्रुत्वैतत् गिरिजा - वाक्यं, प्रहस्योवाच शङ्करः ।
॥ श्रीशिव उवाच ॥
श्रृणु देवि ! मम प्राण - वल्लभेक ! कथयामि ते ॥३॥
यो देवी कालिका माता, सर्व - विद्या - स्वरुपिणी ।
कामाख्या सैव विख्याता, सत्यं देवि ! न चान्यथा ॥४॥
कामाख्या सैव विख्याता, सत्यं सत्यं न संशयः ।
सैव ब्रह्मेति जानहि, यज्ञार्थ दर्शनानि च ॥५॥
विचरन्ति चोत्सुकानि, यथा चन्द्रे हि वामनः ।
तस्यां हि जायते सर्व, जगदेतच्चराचरम् ॥६॥
लीयते पुनरस्यां च, सन्देहं मा कुरु प्रिये ! ।
स्थूला सूक्ष्मा परा देवी, सच्चिदानन्द - रुपिणी ॥७॥
अमेया विक्रमाख्या सा, करुणा - सागरा माता ।
मुक्तिमयी जगद्धात्री, सदाऽऽनन्दमयी तथा ॥८॥
विश्वम्भरी क्रिया - शक्तिस्तथा चैव सनातनी ।
यथा कर्म - समाप्तौ च, दक्षिणा फल - सिद्धिदा ॥९॥
तथा मुक्तिरसौ देवी ! सर्वेषां फल - दायिनी ।
अहो हि दक्षिणा काली, कथ्यते वर - वर्णिनी ॥१०॥
वे ही विश्व का पालन करनेवाली क्रियाशक्ति और
सनातनी महादेवी हैं । जिस प्रकार यज्ञादि कर्मों की समाप्ति
पर ' दक्षिणा ' ही अभीष्ट फल देती है, उसी प्रकार हे
देवी ! वे ही मुक्ति और सबके अभीष्ट फल को देनेवाली
हैं । इसी से हे सुन्दरी ! वे ' दक्षिणा काली ' कही जाती हैं ।
कृष्ण - वर्णा सदा काली, आगमस्येति निर्णय ।
उक्तानि सर्वतन्त्राणि, तथा नान्येति निर्णयः ॥११॥
कृत्वा सङ्कल्पमित्यस्य, काम्येषु पाठयेद् बुधः ।
पठेत् वा पाठयेद् वापि, श्रृणोति श्रावयेदपि ॥१२॥
तं तं काममवाप्नोति, श्रीमत् - काली - प्रसादतः ।
यथा स्पर्श - मणिर्देवि ! तथैतत् तन्त्रमुत्तमम् ॥१३॥
यथा कल्पतरुर्दाता, तथा ज्ञेयं मनीषिभिः ।
यथा सर्वाणि रत्नानि, सागरे सन्ति निश्चितम् ॥१४॥
तथाऽत्र सिद्धयः सर्वाः, भुक्ति - मुक्तिर्वरानने ! ।
सर्व - देवाश्रयो मेरुर्यथा सिद्धिस्तथा पुनः ॥१५॥
सर्व - विद्या - युतं मन्त्रं, शपथेन वदाम्यहम् ।
यस्य गेहे स्थितं देवि ! तन्त्रमेतद् भयापहम् ॥१६॥
रोग - शोक - पातकानां, लेशो नास्ति कदाचन ।
तत्र दस्यु - भयं नास्ति, ग्रह - राज - भयं न च ॥१७॥
न चोत्पात - भयं तस्य, न च मारी - भयं तथा ।
न पराजस्तेषां हि, भयं नैव मयोदितम् ॥१८॥
भूत - प्रेत - पिशाचानां, दानवानां च राक्षसाम् ।
न भयं क्वापि सर्वेषां, व्याघ्रादीनां तथैव च ॥१९॥
कूष्माण्डानां भयं नैव, यक्षादीनां भयं न च ।
विनायकानां सर्वेषां, गन्धर्वाणां तथा न च ॥२०॥
स्वर्गे मर्त्ये च पाताले, ये ये सन्ति भयानकाः ।
ये विघ्न - कराश्चैव, न तेषां भयमीश्वरि ! ॥२१॥
यम - दूताः पलायन्ते, विमुखा भय - विह्वलः ।
सत्यं सत्यं महादेवि ! शपथेन वदाम्यहम् ॥२२॥
सम्पत्तिरतुला तत्र, तिष्ठति सप्त - पौरुषम् ।
वाणी तथैव देव्यास्तु, प्रस्तादेन तु ईरिता ॥२३॥
एतत् ते कथितं स्नेहात् , न प्रकाश्यं कदाचन ।
गोपनीयं गोपनीयं, गोपनीयं सदा प्रिये ! ॥२४॥
पशोरग्रे विशेषण, गोपयेत् तु प्रयत्नतः ।
भ्रष्टानां साधकानां च, सान्निध्यं न वदेदपि ॥२५॥
न दद्यात् काण - खञ्जेभ्यो, विगतेभ्यस्तथैव च ।
उदासीन - जनस्यैव, सान्निध्ये न वदेदपि ॥२६॥
दाम्भिकाय न दातत्यं, नाभक्ताय विशेषतः ।
मूर्खाय भाव - हीनाय, दरिद्राय ममाज्ञया ॥२७॥
दद्यात् शान्ताय शुद्धाय, कौलिकाय महेश्वरी ! ।
काली - भक्ताय शैवाय, वैष्णवाय शिवाज्ञया ॥२८॥
अद्वैत - भाव - युक्ताय, महाकाल प्रजापिने ।
कुल - स्त्री - वन्द्य - कायाऽपि, शिवाय विनीताय च ॥२९॥
॥ श्री कामाख्या - तन्त्रे पार्वतीश्वर - सम्वादे दशमः पटलः ॥
Translation - भाषांतर

श्री देवी ने कहा - हे जगन्नाथ ! जो महादेवी कामाख्या सर्वरुपिणी कही गई हैं, वे कौन हैं ? हे प्रभो ! बताइए, कपट न करें । हे नाथ ! यदि बताने में कपट करें, तो आपको मेरी सौगन्ध । रतिकाल में पति को किसी कामिनी की योनि का स्पष्ट दर्शन न कराना चाहिए ?
पार्वती के उक्त कथन को सुनकर शङ्कर ने हँसकर कहा - हे मेरी प्राणप्रिये देवी सुनो ! तुम्हें बताता हूँ । जो माता कालिका देवी सर्वविद्यास्वरुपिणी हैं, वे ही ' कामाख्या ' नाम से प्रसिद्ध हैं । हे देवी ! यह सत्य है, अन्य कोई बात नहीं है । वे ही ' कामाख्या ' रुप से विख्यात हैं, यह निःसन्देह सत्य है । यज्ञ और दर्शन - शास्त्र के लिए वे ही ' ब्रह्म ' हैं, ऐसा जानो ।
जैसे चन्द्रमा को देखकर बौने लोग उसके सम्बन्ध्य में उत्सुक होकर भटकते फिरते हैं, वैसे ही उस महादेवी से ही चराचर, जगत् उत्पन्न होता और पुनः उसी में लय होता है । इसमें हे प्रिये ! कोई सन्देह न करो । वे असीमित शक्ति की आधार हैं और अपार दयामयी माँ हैं । वे मुक्तिदायिनी, जगद्धात्री और सदा परमानन्दमयी हैं ।
आगम या तन्त्रशास्त्र का निर्णय है कि काली सदा कृष्णवर्णा हैं । सभी तन्त्रों में ऐसा ही कहा है, अन्य बात नहीं, यही निर्णय है । संकल्प कर जो बुद्धिमान काम्य कर्म के लिए इस तन्त्र का पाठ करता या करवाता है अथवा सुनता या सुनवाता है, वह श्री काली की कृपा से उन - उन कामनाओं को प्राप्त करता है । हे देवी ! स्पर्शमणि के समान यह तन्त्र उत्तम फलदायक है ।
जिस प्रकार ' कल्पवृक्ष ' सभी फलों को प्रदान करता है, वैसा ही इस तन्त्र को मनीषियों को जानना चाहिए । जैसे सभी प्रकार के रत्न समुद्र में रहते हैं, वैसे ही, हे सुमुखि ! सभी सिद्धियाँ - भुक्ति और मुक्ति इससे मिलती हैं । सब देवों का आश्रय जैसे मेरु पर्वत है, वैसे ही यह तन्त्र सभी सिद्धियों का आश्रय है ।
हे देवी ! मैं सत्य कहता हूँ, विद्याओं से युक्त यह मन्त्र है । जिसके घर में भय को दूर करनेवाला यह तन्त्र विद्यमा न है, उसके यहाँ रोग, शोक और पापों का लेश मात्र कभी नहीं रहता । न वहाँ चोरों का भय रहता है, न ग्रहों या राजदण्ड का भय ।
उस घर के रहनेवालों को न उत्पातों का भय रहता है, न महामारी का । उनकी कभी पराजय नहीं होती, न किसी अन्य प्रकार का भय रहता है । भूत - प्रेत, पिशाच और दानवों या राक्षसों का न व्याघ्र आदि हिंसक पशुओं का भय कहीं उन्हें होता है । यह मेरा वचन है ।
कूष्माण्डों का भय नहीं होता, न यक्ष आदि का । सभी विनायकों और गन्धर्वो का भी भय नहीं होता । हे ईश्वरी ! स्वर्ग, मृत्युलोक और पाताल में जो - जो भयानक और विघ्नकारक जीव हैं, उन सबका भय भी उन्हें नहीं होता ।
साथ ही देवी कामाख्या की कृपा से सरस्वती भी उस घर में उतने ही समय तक बनी रहती है ।
हे प्रिये ! यह सब मैंने तुम्हारे स्नेहवश बताया है । इसे कभी प्रकट न करें । सदा इसे गुप्त ही रखें । विशेष कर पशु भाववाले लोगों से इसे प्रयत्न करके छिपा रखना चाहिए । भ्रष्ट साधकों के समक्ष भी इसकी चर्चा न करनी चाहिए ।
मेरी आज्ञा है कि इस तन्त्र को काने, लूले, कुलाचार - त्यागी और विरक्त लोगों को न बताएँ । विशेषकर अहंकारी, मूर्ख, भाव - शून्य, दरिद्र और भक्तिहीन लोगों को इसे न देना चाहिए ।
हे महेश्वरी ! अद्वैतभाव से युक्त, शान्त, शुद्ध, कालीभक्त, शैव, वैष्णव महाकाल के उपासक और कुलस्त्रियों द्वारा वन्दित, विनम्र, शिव - स्वरुप साधक को ही इसे देना चाहिए । यही शिवाज्ञा है ।

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